बिखरे चारों ओर कहो
किसकी वेणी के फूल !
अचरज है, जाने उसको ही
क्यों जाता हूं भूल !
प्रिय- नि:श्वासित, स्पर्श-सुवासित
स्नेहल बहे समीर,
जिसकी देन उसे विस्मृत कर
मन अत्यंत अधीर।
उसके सिवा कौन हो सकता
हेतु रहित अनुकूल !
हे अत्यंत! आनंद-प्रेम-धन
आकृति के आकार,
अपने उपवन में तू ही तू
है नित-नव साकार।
जब-जब तुझे बिसारूं तब-तब
भले चुभाना शूल।
-मिलाप दूगड़
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